Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ४९

५. ।ढाके भाई नथा॥
४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १२ अगला अंसू>>६
दोहरा: नाम बुलाकी दास जो, बडो मसंद सु देश।
हुती नगर की संगतां, लीनि सकेल अशेश ॥१॥
चौपई: सुनि सुनि सिख सतिगुर आगवनू।
रुचिर अकोरनि ले निज भवनू१*।
चौणपति चित चाहति दरसावन२।
होहिनिहाल हेरि पग पावन ॥२॥
सभि इकज़त्र करि संगति रास।
आगै होइ बुलाकी दास।
गावति शबद प्रेम गुरु माते।
लोचन ते जल बूंदन जाते३ ॥३॥
सने सने सभि चलि करि आए।
परम प्रीति पाइन लपटाए।
अरपन कीनि अकोर अनेक।
हेरि हेरि करि जलधि विवेक ॥४॥
बार बार होवति बलिहारी।
बंदन करि करि बिनै अुचारी।
आइसु पाइ बैठि सभि गए।
शबद प्रेम ते गावति भए ॥५॥
करो कीरतन को चिरकाल।
सुनि गुर भए प्रसंन बिसाल।
क्रिपा धारि ऐसे कहि वाका।
मम सिज़खी को कोठा४ ढाका ॥६॥
भली भांति मुहि भजन सुनायहु।
अधिक प्रेम ते रिदा रिझायहु।
तबि अुठि करि सबि संगति रास।


१आपो आपणे घराण तोण।
*पा:-भए तिआर ताग निज भवळ।
(२) दरशन करहि आइ तजि भवळ।
२दरशन करना।
३वगदीआण।
४खग़ाना।

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