Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ६) ३७३
४८. ।फज़ते ने घोड़ी ना दिज़ती। मालवे पहुंचंा। नबी नी ां विदा॥
४७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ६ अगलाअंसू>>४९
दोहरा: सने सने गमने प्रभू,
मारग चले कितेक।
ग्राम कनेच* पहूच कै,
थिर है जलधि बिबेक ॥१॥
चौपई: इक गुर सिज़ख बसहि तिस मांहि।
जाट जनम फज़ता कहि तांहि।
निकट आइ तिन सतिगुर हेरे।
करी चिनारी है तबि नेरे ॥२॥
श्री गुर गोबिंद सिंघ पछाने।
हाथ बंदि करि बंदन ठाने।
थिरो समीप बैठिगा जबिहूं।
देखि प्रभू दिश बोलो तबिहूं ॥३॥
सेवा करनि मोहि फुरमावौ।
भोजनादि आनौण मैण, खावो।
अपर सेव किस बिधि की होइ।
कहीअहि आप करोण मैण सोइ ॥४॥
श्री मुख ते भाखो तिस बेरे।
अहै तुरंगन जो घर तेरे।
सो अबि आनि देहु हम तांई।
चढि तिस पर गमनैण अगवाई ॥५॥
सुनि फज़ते चित बीच बिचारी।
कहै कि आनौ आप अगारी१।
इम कहि सदन आपने गयो।
ततछिन ग़ीन निकारति भयो ॥६॥
अलप तुरंगन पर सो पाइ।
लै आयो गुर ढिग सहिसाइ।
बड़वा बडी नहीण तबि आनी।
-लै जै हैण कित१ को मन जानी ॥७॥*पा:-कनेर। पर ठीक नाम कनेच है। जो लुधिआणे दे ग़िले विच है।
१बोलिआ कि मैण आप पास लिआअुणदा हां।