Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३७७
तबि करि तार अहार अचावै ॥६॥
नहिण आलस को दिजिबर१ करै।
आइ छुधिति की छुधा सु हरै।
देखि सेव रीझे गुरदेव।
सज़तिनाम दे गान करेव२ ॥७॥
जनम मरन को दुज़ख निवारा।
पायो पद जहिण अनणद अुदारा।
एक बार गे सहिज सुभाइ।
डज़ले ग्राम बिखे सुखदाइ३ ॥८॥
प्रिथीमज़ल अर तुलसा दोइ।
हुते जात के भज़ले सोइ।
सुनि दरशन को तबि चलि आए।
नमो करी बैठे ढिग थाए ॥९॥
अुर हंकारी४ गिरा अुचारी।
एको जाति हमार तुमारी।
श्री गुर अमर भनो सुनि सोइ।
जाति पात गुर की नहिण कोइ ॥१०॥
अुपजहिण जे सरीर५ जग मांही।
इन की जाति साच सो नांही।
बिनसि जात इहु६ जरजरि होइ७।
आगे जाति जात नहिण कोइ ॥११॥
स्री मुखवाक:अगै जाति न जोरु है अगै जीअु नवे ॥
जिन की लेखै पति पवै चंगे सेई केइ ॥३॥
इम श्री नानक बाक अुचारा।
आगे जात न जोर सिधारा८।
१(इह) चंगा ब्राहमण।
२करा दिज़ता।
३भाव श्री गुरू जी।
४दिल दे हंकारीआण ने।
५जो सरीर पैदा हुंदे हैन।
६भाव सरीर।
७भाव सरीर बुज़ढे हो के बिनस जाणदे हन।
८अज़गे जात ते जोर नहीण जाणदे।