Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि २) ३७५
४६. ।भाई बहिलो॥
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दोहरा: श्री अरजन इस भांति सिख, करे दयो अुपदेश।
सिमरति हैण सतिनाम के, मेटति सकल कलेश ॥१॥
चौपई: सुनि सुनि श्री अरजन की कीरति।
निति प्रति होति अधिक बिसतीरति।
श्री गुर अमरदास के आगे।
भए जु सिज़ख महां बडभागे ॥२॥
अरु श्री रामदास ते केई।
पाइ सुमति होए सिख जेई।श्री अंम्रितसर की सुनि कार।
जिह सेवे फल पाइ अुदार ॥३॥
सो सभि आवति घर को तागे।
खनहि म्रिज़तका सेवा लागे।
केतिक करहि पजावनि१ कार।
माटी चीकनि२ लेहि सुधार ॥४॥
संचे मांहि ईणटका ढारैण।
शुशक करन को इत अुत धारैण३।
केतिक सिर धरि ढोवन करिहीण।
जहां पजावे तहि ले धरिहीण ॥५॥
केतिक गहि करि निज मति संग।
चिनहि सु ईणधन४ करहि अुतंग।
केतिक कूरा५ करैण सकेलन।
ईणट पकावन हित करि मेलनि ॥६॥
को भोजन निज घर ते खाइ।
सभि दिन गुरु की सेव कमाइ।
केतिक दरब अरप हैण आइ।
ब्रिंद मिहनती देति लगाइ ॥७॥
१आविआण दी।
२चीकंी मिज़टी।
३धरदे हन।
४ चिंदे हन बालं।
५कूड़ा।