Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) ३७५

४९. ।माई निहाल होई॥
४८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ५ अगला अंसू>>५०
दोहरा: पौर प्रवेशे प्रभू पुरि, जिस थल दास अवास।
तहां पहुचे जाइ करि, पूरन बिरधा आस१ ॥१॥
चौपई: तिस घर के दर खरे अगारी।
सेवादास सिज़ख हितकारी।
सुनि तुरंग के खुर को खरका।
निकसो वहिरि छोरि दर घर का२ ॥२॥
खरे हेरि श्री हरिगोविंद।
कर महि तोमर गहो बिलद।
पग पंकज परि धरि करि सिर को।
भयो अनद बिलदै अुर को ॥३॥
चिरंकाल की लगी अुडीका।
दरसो आज भावतो जी का।
गहि रकाब करि बिनै अुतारे।
ले गमनो निज ग्रेह मझारे ॥४॥
रुचिर प्रयंक निकासि डसावा।
निज माताको हरखि सुनावा।
हे बडभागनि! दिन प्रति जाणही।
करति प्रतीखन चहि चित मांही ॥५॥
क्रिपा धारि घर सो चलि आए।
नाम सखा सिज़खनि३ बिदताए।
आखय भाग भरी शुभ तेरा।
सारथि४ भाग भरी अबि हेरा ॥६॥
सुनति अुठी बिहबल युत प्रेम।
बलहीना गुर हित किय नेम।
इक तौ ब्रिधा बिती बय घनी।
खान पान संजम के सनी ॥७॥
चिंत निरंतर अंतर अुर के।

१ब्रिज़धा दी आस पूरन करन लई।
२घर दा दरवाग़ा छज़ड के।
३नाम।
४सफल।

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