Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३८१
करि बंदन बैठे दुखिआरू१++ ॥३०॥
तिन को भी अुपदेशन कीनि।
वंडखाहु धरि भाअु प्रबीन?
मधुर गिरा सभि संग अुचारहु।
कहिन कठोर२ नहीण रिस धारहु ॥३१॥
गुर सिज़खन को प्रथम अचावहु।
शेश रहै भोजन तुम खावहु।
महां पविज़त्र होति है सोइ।
सिज़खन पीछै अचीयति जोइ** ॥३२॥सिमरो वाहिगुरू नितनामू।
लिव लागे पद दे अभिरामू३।
मड़ी, टोभड़ी, मठ अरु गोर।
इनहुण न सेवहु सभि दिहु छोर ॥३३॥
खानु छुरा अरु बेगा पासी।
नद सूदना होइ हुलासी।
अुगरू, तारू, झंडा, पूरो।
सुनि जसु आए गुरू हजूरो ॥३४॥
मसतक टेकि अदब ते बैसे।
बूझति भए श्रेय हुइ जैसे।
श्री गुर अमर कहो सुनि लीजै।
अबि कलि काल बिसाल जनीजै ॥३५॥
प्रथम जुगन महिण जज़ग करंते।
होमति४ देवतान त्रिपतंते।
तिह सम फल सिख देहु अहारा५।
भाअु करिहु लिहु भगति अधारा ॥३६॥
१दुखी।
++पा:-दुख आरू = दुज़खां दे शज़त्र-गुरू जी।
२(किसे दे) कठोर कहिं ते।
**सिज़ख ते संत पद जो इस तर्हां वरतीणदे हन ओह जीअुणदे नाम रसीआण तोण मुराद हुंदी है। शोक
है कि अज कल सिज़खां ळ प्रशाद छकाअुण दी मिरयादा पछमी मादा प्रसती दीअंधेरी अज़गे अुडदी
जाणदी है।
३प्रापत होवेगा सुंदर पद।
४होम करके।
५फल होवेगा जे सिज़खां ळ भोजन दिओगे।