Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ७) ३७९

४७. ।दिन चड़्हे दा जुज़ध॥
४६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ७ अगला अंसू>>४८
दोहरा: मरति परसपर तुरक गन, भई भोर तबि आइ।
दस हग़ार लशकर रहो, अपर खपो दुख पाइ ॥१॥
निशानी छंद: बीस रु पंच सहंस्र१ दल, तम महि इम नाशा।
जिम तम को सूरज हतो, करि दीनि प्रकाशा।
जिम अुडगन सगरेदुरे, नहि देहि दिखाई।
तिम तुरकाना छपि गयो, जिन धूम मचाई ॥२॥
बडी नीणद सुपते परे, रण खेत मझारा।
दीरघ मग ते थकति भे, जनु श्रम निरवारा।
गिरे तुरंग तुरंग पर, धर पर धर२ ब्रिंदा।
शसत्र बसत्र बिखरे परे, जनु बीज बिलदा ॥३॥
ललाबेग लशकर पिखो, जबि भयो प्रकाशा३।
अलप अहैण बहुते मरे, तजि जै बिज़सासा।
देति कितिक सुधि आनि करि, अमको४ सिरदारा।
सहित सैन के खपि गयो, नहि परहि निहारा ॥४॥
तिसी रीति पुन दूसरो, तीसर सुधि दैहे।
मरे अनिक सैनापती, सभि सैना छैहै।
दूर हुतो रण केत ते, सुनि सुनि बिसमायो।
एते लशकर किह हतो, नहि परो लखायो ॥५॥
इत अुत करहि बिलोकिबो, चित चिंत बिसाला।
भगनी पुज़त्र समीप थित, बोलो तिस काला।
मातुल! का देखति खरे, रण समैण बिचारो।
होइ न अस रिपु आइ इत५, निज ओज संभारो ॥६॥मरे सु गए न आइ फिर, जीवत हैण जेई।
तिनहु जतन करिबो बनहि, दाने बड तेई।
चढे हुते हम लरन को, नहि खाना खाने।
मारन मरणो काज रन, का चिंता ठाने ॥७॥


१२५००० पंझी हग़ार।
२धड़ अुज़ते धड़। (अ) धरती ते धड़।
३जदोण चानंा हो आइआ।
४फलांा।
५ऐसा नां होवे कि किते वैरी इधर आ पवे।

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