Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति २) ३७९
५०. ।कवीआण दी कदर। बाबा फतह सिंघ जनम॥
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दोहरा: श्री कलीधर अनदपुर, बिलसति बहुत बिलास।
जित कित ते बहु गुनी नर, सुनि जसु आवति पास ॥१॥
चौपई: चहु कुंटन ते दूर कि नेरे।
होइ किसू गुन बिखै बडेरे।
इक तौ दरब लालसा धरैण।
दुतीए गुर दरशन मुद धरैण ॥२॥
पावहि सौज१ पसारहि जसु कौ।
तोण तोण आइ सुनावहि रस कौ२।
पूरब दज़छन पज़छम अुज़तर।
पंडत करति प्रशन दैण अुज़तर३ ॥३॥
कविता काव बनावहि जोई।
नव रस सहितबिभूखन४ कोई।
सो आए चलि सतिुगर दारे।
रुचिर कविज़त बनाइ अुचारेण ॥४॥
सुनि प्रसंन है दैण धन रास।
सादर नित राखति गुर पासि।
केशव दास हुतो कवि जोइ।
भयो बुंदेल खंड महि सोइ ॥५॥
तिस कौ पुज़त्र कुवर है नामू।
सो भी रचति गिरा अभिरामू।
तुरक करन नवरंग चित चहो५।
गुनी अधिक हिंदुनि महि लहो६ ॥६॥
जबहि कुवर सुध इस बिधि पाई।
तागि देश घर गयो पलाई।
रिदे बिचारो बसन सथान।
१साज समान।
२(कविता विच रचे) रसां ळ।
३(गुरू जी) दिंदे हन अुज़तर।
४अलक्रित, फबी होई।
५नुरंगे ने (अुस ळ) तुरक करना चाहिआ।
६हिंदूआण विच बड़ा गुणी जाण के।