Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ९) ३८०

५४. ।बूहिआण दे जंदरे खुहले। शराब मास॥
५३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ९अगला अंसू>>५५
दोहरा: शाहु सिखावनि पुन कीयो,
अस नर अग़मत साथ।
होहि तुरक कैसे जबहि,
बधहि दीन की गाथ ॥१॥
चौपई: जिस मत महि ऐसो नर होइ।
रहि अनुसार हेरि सभि कोइ।
तिस मत को मानहि मनमानव।
ग्रहन करहि शरधा अुर ठानव ॥२॥
सरब प्रकार ब्रिधावन करै।
तुम को इतो जतन नहि परै।
इही एक जग तुरक बनावै।
दे शरधा अग़मत दिखरावै१ ॥३॥
अचरज करहि बिलोकहि जबिहूं।
सभि अुठि पाइन परि हैण तबिहूं।
जिस बिधि की सिज़खा सिखरावहि।
नीके धारहि, निशचा लावहि ॥४॥
बल छल ते इस तुरक बनावहु।
रावर मन बाणछति को पावहु।
बधहि दीन हुइ शर्हा मझारी।
कलमा पठहि हरख करि भारी ॥५॥
सुनति शाहु मन ते ललचावा।
-तुरक बनहि, को रचहि अुपावा।
सभि सुखेन तबि हुइ मन भाई।
इस पीछे बनि हैण समुदाई ॥६॥
आज निसा महि सभा लगाइ।
रोकहि दुरग बिखै नहि जाइ।
अपनो खाना पुनहि खवावहि।
जोण कोण करि इस धरम गिरावहि- ॥७॥१करामात दिखावे तां शरधा दान करेगा, भाव करामात तज़क ते (हिंदूआण ळ) इसलाम ते शरधा हो
आवेगी।

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