Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) ५०

६. ।मर्हाज के ते कौड़े राहक॥
५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>७
दोहरा: बीते केतिक दयोस तहि, टिके गुरू हरिराइ।
निकटि निकटि के ग्राम जे, सिज़खबनहि समुदाइ ॥१॥
चौपई: राहक जे मर्हाज के अहैण।
तिन पर क्रिपा करति गुर रहै।
नहि कौड़े तिन आदर करैण।
सभा मांहि तिन को परहरैण१ ॥२॥
२इह परदेशी कित ते आए।
करहि गुग़र बैठे इस थांए।
तिन पर हुकम करति सद रहैण।
मन भावति मुख वाकनि कहैण ॥३॥
रहि मर्हाज के सिरकी बास३।
४निज छित छिन कित करहि अवास।
बसो चहैण, पर प्रापति नांही।
अविनि जहि अपनाइ बसाहीण६ ॥४॥
सतिगुर की सेवा महु लागे।
क्रिपा द्रिशटि ते मन अनुरागे।
जहि कौरनि इक कूप लगायो।
तहि ते सभिहिनि जल को पायो ॥५॥
सभि मर्हाज के राहक जेय।
इन की हुती भारजा, सेय५।
तिसी कूप ते आनति थारी।
मिलि करि गमनति हैण तहि सारी ॥६॥
भरहि कूप ते घट लैण आवैण।
खान पान बिवहार चलावैण।
तिह ठां कौरे तरुन जि नर हैण।


१कज़ढ दिंदे हन।
२कौड़े के कहिदे हन कि।
३सिरकी वास होके रहिंदे हन मर्हाज के।
४आपणी भोण खुज़सचुज़की है किते (होरथे) घर बणा के वज़सिआ चाहुंदे हन पर जिमीण मिलदी नहीण
जिस ळ आपना के वसा लैं।
५ओह (इसत्रीआ) बी।

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