Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३८७

होका देवति मधुर बिसाला ॥६॥
इक सु साधु तिन लियो बुलाई।
हमै देहु इअुण गिरा अलाई।
सुनि इक मुशट लगे भरि देनि।
हमै न चाहि एक की लेनि ॥७॥
इस बिधि दै त्रै देहिण न लेवै।
सकल चंगेर पलट दी एवैण।
ग्रिह आए पित देखो खाली।
लोचन पूर लए तबि लाली१ ॥८॥
दिखि पित नैन बहिर निकसाए।
रुदन करति जल नेत्र* बहाए।
संगति तिह ते चली निहारी।
गोइंदवालहि पुरी बिचारी ॥९॥
तिन संग चले क्रिपाल बिसाला।
गोइंदवाल समूह अुताला२।
सभि संगति गुर दरशन पाई।
कछुक काल रहि बिदा सिधाई ॥१०॥
रहति भए गुर केर हदूरा।
जो भाखैण करि हैण द्रति रूरा।
लगर सेवा सरब सु करिहैण।
सभि संगति अनुसारी चरि हैण३ ॥११॥
इत ए भई और सुनिकानी।
महल४ कहो जिमि गुर प्रति बानी।
महांराज! सुनीए बच मेरा।
भानी बडी भई मैण हेरा ॥१२॥
इस की बनहि सगाई करी।
इमि मात तबि गिरा अुचरी।
इमि* सुनि गुर आए निज थाना।

१भाव गुज़से होए।
*पा:-जसु नदी। जल-नदी।
२सारी (संगत नाल) छेती।
३विचरदे हन।
४श्री गुरू अमरदास जी दे महल।

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