Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ६) ३८५
४८. ।खाजा ते जानी सज़यद, नद लाल सोहणा॥
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दोहरा: श्री गुरु हरिगोविंद जी, बीर धीर गंभीर।
दासन करहि निहाल गन, जो सेवति हुइ तीर ॥१॥
चौपई: इक कशमीरी खाजा नाम।
पूरब भाग जगे अभिराम।
नित सतिगुर की सेवा गही।
सावधान सद आलस नहीण ॥२॥
श्री हरिगोविंद केरि तुरंग।
मलहिसुधारहि सगरे अंग।
जबि अरूढ करि पंथ पधारहि।
आगै असु के सदा सिधारहि ॥३॥
इक सरूप सोण चित बिरमायो।
कहनि सुननि किह संग न भायो।
रहे इकाणकी मेलि न ठानि१।
गुरु सेवा महि रहि सवधान ॥४॥
क्रिपा द्रिशटि इक दिन पिखि धारी।
दौरो गमनति तुरग अगारी।
सेद२ अंग ते चलहि बिसाला।
तन को श्रम३ न पिखहि तिस काला ॥५॥
इक सेवा के ततपर होवा।
सुख दुख आदि दुंद४ सम५ जोवा।
अुतरि गुरू ने निकटि हकारा।
कहु का इज़छा रिदे मझारा? ॥६॥
सुनि करि हाथ जोरि बच भाखा।
इक रावरि दरशन अभिलाखा।
अपर चाहि नहि मेरे कोई।
सदा समीपी तुमरे होई ॥७॥
१इकज़ला रहिदा ते (किसे नाल) मेल नहीण रज़खदा सी।
२मुड़्हका।
३थकान।
४भाव दंदां दे जोड़े-यथा, हरख शोक, दुख सुख।
५इक बरोबर।