Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 376 of 626 from Volume 1

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३९१

और कुमति करि कोइ न अरै।
बहु सैना इस संग चढाई।
तोप रहकला१ दे समुदाई ॥२९॥
पिखिसमाज२ हंकारो बिज़प्र।
कहै हतौण शज़त्रगन छिज़प्र३।
अकबर हरखति बाक बखाना।
लिखि करि पान दियो परवाना४ ॥३०॥
खज़त्री जात जितिक जिस देश।
ग्राम कि नगर बसंत* अशेश५।
इक घर एक रजतपण६ दै कै।
मिलहि तोहि नम्री सिर कै कै ॥३१॥
इमि सभि लिखत दई करि हाथ।
लई बीरबल हुइ मद७ साथ।
दिज़ली ते चढि चलि करि आयो।
बड लशकर जिह संग सिधायो ॥३२॥
जाइ देश जिस अुतरै सोइ।
खज़त्री आनि मिलहिण सभि कोइ।
गिन गिन घरनि रजतपण देति।
खोजि खोजि तिस के नर लेति ॥३३॥
इमि की करति लए भट भीर८।
अुतरो आनि बिपासा तीर।
करी सकेलन तरनी९ घनी।
तर करि पार परी सभि अनी१० ॥३४॥


१छोटी तोप।
२समिज़ग्री।
३छेती ही।
४हज़थ दिज़ता परवाना।
*पा:-जि बसैण।
५वसदे हन (ओह) सारे।
६रुपज़या।
७हंकार।
८सूरमिआण दी भीड़।
९बेड़ीआण।
१०सैनां।

Displaying Page 376 of 626 from Volume 1