Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ६) ३९०
५०. ।माही ने आ के साहिबग़ादिआण दा साका सुनाअुणा॥
४९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ६ अगला अंसू>>५१
दोहरा: बैठे, माही के गए,
बातैण करति बिताइ।
भयो दुपहिरा आन करि,थिरि प्रयंक सुखदाइ ॥१॥
निसानी छंद: निकट राइ कज़ला थिरो, त्रै सै भट साथा।
अपर लोक थिर सैणकरे, दरसति हैण नाथा।
भीर अहै बहु नरनि की, थिर दूरहि दूरी।
आनि आनि बंदन करहि, पिखि मूरति रूरी ॥२॥
देखि दुपहिरे दिशा गुर, श्री बदन बखाना।
सुनहु राइ कज़ला! अबै माही प्रसथाना१।
पहुचो आइ कि नहीण सो, देखहु तिस घाई२।
बीत गए दो पहिर तिह, आवहि करि धाई ॥३॥
बोलो कज़ला जोरि कर किय गमन सकारे।
पहुचहि चाली कोस सो, चलि बासुर सारे।
अगले दिन पहुचै, इहां सभि बात बतावै।
मारग अज़सी कोस को, बल के जुति आवै ॥४॥
सुनि तूशन गुर हुइ रहे, कहि और प्रसंगा।
जथा गिरेशुर भीमससि३, मचवायहु जंगा।
बाई धारनि के पती, बड चमूं बटोरी।
सभि इकज़त्र मति को करे, आए हन ओरी ॥५॥
दै घटका बीती बहुर, इज़तादि कहंते।
अकसमात्र श्री सतिगुरू, इम बचन भनते।
मनुज चढावहु तरू पर४, पग देखहि सोई।
आवत माही कै नहीण, सुधि पावहि जोई ॥६॥
पुनहि राइ कज़ला कहै, पहुचोभि न सोअू।
कहां होइ आगवन अबि, का तरु पर जोअू।
संधा अगले दिवस ही, होवति सो आवै।
१गिआ सी।
२तिस तरफ।
३भीमचंद।
४ब्रिज़छ अुज़ते।