Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) ३९१
५७. ।श्री गुरू हरिगोविंद सज़च खंड गमन॥
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दोहरा: साहिब भाने सोण कहो, तुम निज नदन आनि।श्री हरिराइ समीपि रखि, सदा रहै सुख ठानि ॥१॥
चौपई: रामदास के ग्राम मझारे।
तन को तागहु तहां सुखारे।
राइ जोध सोण बहुर बखाना।
हम पाछै अविलोक बिधाना१ ॥२॥
पुन काणगड़ को जाहु सुखारे।
भोगहु परालबध तन धारे।
अंत समै हम होहि सहाइ।
सज़तिनाम सिमरहु लिवलाइ ॥३॥
तिम ही रूपा निज घर रहै।
अंत परम पद को इहु लहै।
करहु देग गुर हित बरतावह।
सिज़खी को कमाइ सुख पावहु ॥४॥
तुम दोनहु की संतति जोई।
मेली गुर घर सोण नित होई।
पहुचहि अनिक बार२ तिस देश।
मिलहि सदा सुख लहहि अशेश३ ॥५॥
रुदति अधिक गुर तनुजा आई।
पित को मोह रिदै अुमगाई।
देखि तांहि को धीरज दीना।
कोण ऐसे होई मन दीना ॥६॥
सरब सुखनि को लहैण सदीव।
संतति तोर बीर बड थीव।
जसु को लेहि रहैण गुर संग।
धरहु अनद शोक दुख भंगि ॥७॥
बिधीचंद को सुत मतिवंता।
१(जोती जोत समावं) दी रीती देखके।२(असीण अनेकाण वारी पहुंचांगे)।
३सारे सुख पाओगे।