Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) ५१
५. ।मजळ प्रसंग॥
४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ५ अगला अंसू>>६
दोहरा: अबि श्री हरिगोबिंद की,
कथा सुनहु मन लाइ।
दिज़ली की संगति सकल,
भई प्रात इक थाइ ॥१॥
चौपई: पंचां म्रित बहुते करिवाए।
इकठे सिख दरशन को आए।
केतिक हेरनि चंदू हेतु।
मानव आए तजे निकेत ॥२॥
सतिगुर बैठे सभा मझारो।
मानुख दरशन करति हग़ारोण।
आइ तिहावल हुइ अरदास।
बरतावैण बैठे नर पास ॥३॥
मुज़ख सिज़खगुर के संग भाखैण।
आज भई पूरन अभिलाखै।
नांहि त जबि की तजी सगाई।
करति रहो बड दुशट खुटाई ॥४॥
हेरि हेरि हिरदे पछुतावैण।
-हम ते भई अुपाधि- लखावैण।
इस ने कहे कुवाक प्रकाश।
हम सुधि पठी सकल गुर पास ॥५॥
लिखो हमारो गुर ने माना।
तजो साक कीनसि अपमाना।
तबि ते कुटिल दुशट निज बल ते।
करतो रहो अवज़गा छल ते ॥६॥
करे कुकरम महां अपराधा।
तिन को फल संकट अबि लाधा।
आज निचिंत भए हम सारे।
गहे गुरू द्रोही हज़तारे१ ॥७॥
श्री हरिगोबिंद जी तबि कहो।
१हज़तारे गुरद्रोही दे फड़े जाण नाल।