Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ६) ३९३४९. ।बाबा बुज़ढा जी तोण आदि सतिगुराण दी महिमां सुणी॥
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दोहरा: श्री गुरू हरि गोबिंद जी,
करति दास कज़लान।
इक दिन बैठे सभा महि,
अुडगन चंद समान ॥१॥
चौपई: दरशन करहि सिज़ख सुख पावहि।
महां प्रेम ते बलि बलि जावहि।
श्री हरि गोविंद आनद धारा।
साहिब बुज़ढे समुख निहारा ॥२॥
सुंदर बाक बिलास बखाना।
हे भाई! तुम बैस महाना।
श्री नानक की कीनी सेवा।
सेवे श्री अंगद गुरदेवा ॥३॥
तिन की जुगति अपर शुभ करनी।
करी निहारनि दुरमति दरनी१।
जथा चरिज़त्र कीए श्री नानक।
बाक अमोल मनो मनि मानक२ ॥४॥
भुकति मुकति सभि हाग़र जिन के।
करे करम हेरे तुम तिन के।
श्री अंगद गुर अमर गुसाईण।
सभि लीला जिम कीनि सुहाई ॥५॥
सुखद करी जस तीनहु३ करनी।
हमहि सुनावहु तिम दुख हरनी।
सुनी अपर ने किस तेकान४।
तुम बिदमान बिलोकनि ठानि५ ॥६॥
अहौ पुरातन परम प्रबीना।
गुर सिज़खी शरधा मन भीना।
१दुरमत नाश करने वाला।
२मन दे रतन (अ) मणी ते मांक।
३जिवेण तिंनां ही (सतिगुराण) ने।
४होर तां (किसे ने) किसे तोण कंनीण सुणी ही होवेगी।
५ते तुसां ने प्रतज़ख देखी है।