Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४०१
गुर दरशन हित आए सेई ॥१४॥
अरपि अकोर अनेक प्रकारा।
श्री सतिगुर मुख कमल निहारा।
करि करि बंदन बैठि नजीका।
बोले गुरू गिरा रमणीका ॥१५॥
कुशल अनद सभिनि महुण अहे।
मिलि सभि संगति को रस लहे१!
डज़ले महिण सिख सेवक मेरे।पारो लालो आदि बडेरे ॥१६॥
निति प्रति मो कहु अतिशै पारे।
जिन मिलिबो२ नर और अुधारे।
सुनि लालो कर जोरि बखानी।
बखशहु अपनी संगति जानी३ ॥१७॥
जो किछु अहै प्रताप तुमारा।
हम सम बपुरे कहां बिचारा४।
इज़तादिक बच सुनि अरु कहि कै।
इक दुइ दिवसु बिताए रहि कै ॥१८॥
आवति जाति पिंजरा हेरा।
बालक दुरबल बीच बडेरा।
देखि घनी करुना मन आई।
सतिगुर के ढिग जाइ सुनाई ॥१९॥
महांराज! इस करहु खलासी।
दुरबल अधिक लहै दुखरासी५।
भयो दीन कर जोरि दिखावै६।
छुटिबे कारन बिनै सुनावै ॥२०॥
तबि श्री अमर कहो छुटवाअु।
संग आपने ले करि जाअु।
१अनद लैणदे हो।
२जिन्हां दा मिलंा। जिन्हां ळ मिलं नाल।
३जाणके।
४विचारे दास की हां।
५बहुता कमग़ोर (है ते) पा रिहा है बहुत दुज़ख।
६हज़थ जोड़के दज़सदा है।