Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४०२

हमरी दिशा बहुर नहिण आवै।मिली सजाइ थिरो पछुतावै१ ॥२१॥
इम आगा सतिगुर की लीनि।
आइ खलासी ततछिन कीन।
गुर ते बिदा होइ सभि चाले२।
तिस बालिक को लीनसि नाले ॥२२॥
पहुंचे कितिक कोस जबि जाइ।
तेईआ ताप छुधित बिकुलाइ।
लालो संग कहो कर जोरि।
बहु चलिबे को नहिण मम जोर३ ॥२३॥
भूख अधिक लागी तन मेरे।
बिन अहार दिन बिते घनेरे।
दिहु आगा मैण अबि त्रिपतावौण।
पुन तूरन तुम साथ सिधावौण ॥२४॥
सुनि लालो करि दया अुचारी।
आगे चलि हैण ग्राम मझारी।
पहित४ चून५ ले बहुत पकावैण।
नीकी रीति तोहि त्रिपतावैण ॥२५॥
नहीण दूर कछु, नेरे जानि।
मन भावत कीजै तहिण खान।
पुन तुझ को ले संग सिधारैण।
सने सने चलि, नांहि न हारैण६ ॥२६॥
सुनि बालक तबि बाक बखाना।
मम अहार अबि है इस थाना।
तुम आगा बिन सकौण न खाइ।
कहहु तुरत ही है त्रिपताइ ॥२७॥
सहज सुभाइक लालो कहो।


१बैठिआण पछुतांवदा है।२सारे (डज़ले वासी सिख) चज़ले।
३ताकत।
४दाल।
५आटा।
६हौली हौली टुर, थज़केणगा नहीण।

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