Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) ४००
५२. ।गुरू जीदिज़ली पुज़जे॥
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दोहरा: श्री हरिगोविंद जी अुठे, करि सभि सौच शनान।
बसत्र शसत्र को पहिर करि, होति भए सवधान ॥१॥
चौपई: बजो कूच को तबहि नगारा।
कीनिसि तारी करनि पधारा।
ब्रिध गुरुदास मसंद जि ब्रिंद।
आइ निकट बंदति कर बंदि ॥२॥
बैठि गए चहुदिशि महि सारे।
श्री हरि गोबिंद बाक अुचारे।
ब्रिध साहिब! भाई गुरदास!
तुम साने करि बास अवास ॥३॥
हरि मंदरि की करीअहि सेवा।
पूजनि करहु सदा गुरु देवा।
सिख संगति आवति जिम आगे।
सरब रीति करि तिम बडिभागे ॥४॥
कार देग की तथा चलावहु।
अपर सरब कारज सुधरावहु।
कितिक सुभट रहि संग तुमारे।
दास ब्रिंद होवहि अनुसारे ॥५॥
सदा प्रसंन मात को राखहु।
हमरी दिशि ते आछे भाखहु।
संमत१ होइ कार को करीअहि।
सभि दिसि सावधानता धरीअहि ॥६॥
इम ब्रिध को सभि सौणपि समाजा।
चाहो चढनि गरीब निवाजा।
पुरि जन२ अर सिख सेवकसारे।
सभि पर करुना द्रिशटि निहारे ॥७॥
दे करि खुशी भए असवार।
करि कै जथा जोग सभि कार।
१भाव माता जी दे अनसारी होके।
२नगर दे वासी।