Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) ४०१५५. ।ससराम चाचे फज़गो दे॥
५४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>५६
दोहरा: रतनाकर गुरु गान के१, देशनि पाना कीनि।
अूखर२ पोखर३ सभि भरे४, सिज़खी पंथ नवीन५ ॥१॥
चौपई: पूरन प्रण हित सिज़खनि केरा।
करो कूच काणशी ते डेरा।
खैणचे प्रेम डोर ते दासनि।
चले जाति प्रभु हाथ सरासन६ ॥२॥
भाथा खड़ग बंधि कट संगे।
गमनति हुइ असवार तुरंगे।
मात नानकी नुखा समेत।
डोरे संदन पर छबि देति ॥३॥
कबि शिवका पर चढहि गुसाईण।
सने सने मारग अुलघाई।
पहुचति भे मिरग़ा पुरि नगरी।
सुनि करि गुरु सुधि संगति सगरी ॥४॥
अुपहारनि ले अनिक प्रकारी।
आदर हित आए अगवारी।
मिले धाइ करि बहुत अुमाहति।
जथा त्रिखातुर जल को चाहति ॥५॥
कर जोरहि निज सीस झुकावहि।
गुरु के पद अरबिंद लगावहि।
ले करि संग सिवर करिवायव।
करति भए जिम गुरु फुरमायव ॥६॥
अनिक प्रकारनि की करि सेवा।
करेप्रसंन महां गुरु देवा।
खान पान की टहिल बिसाला।
१गिआन दे समुंदर श्री गुरू जी।
२कज़लर वाली भूमी।
३छज़पड़।
४(नाम रूपी जल नाल) भर दिज़ते।
५सिज़खी रूप नवीन पंथ (अधिकारी अन अधकारी) भाव सभनां विच भरिआ।
६हज़थ विच धनुख धारे।