Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति २) ५१
६. ।राम राइ जी दा अंत॥
५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति २ अगला अंसू>>७
दोहरा: तीनो महि मुखि एक त्रिय,
नाम कुवर पंजाब१।
चहि सहाइता सिज़ख की,
निकट बुलाइ शिताब२ ॥१॥
चौपई: पास बिठाइ अधिक सतिकारी।
रामराइ तिह साथ अुचारी।
अंतर कोशठ३ के तन मेरो।
थिरो रहै, को इसहि न हेरो४ ॥२॥
मो कहु कारज है अति भारी।
बहुर आइ करि लेहु संभारी।
किसहूं निकट न आवनि दीजै।
सभिहिनि ते रज़खा तन कीजै ॥३॥
इम पंजाब कुइर समुझाई।
कोशठ महि प्रविशो सहिसाई।
करे किवार असंजति५ ठाढे।
अंतर सांकर दे करि गाढे६ ॥४॥
आसतरन७ पर ततछिन परो।
निज शकती बल कौ बहु करो।
तन कौ तागि गयो जहि जाना।
निज सिख को लखि काज महाना ॥५॥
जबिइक जाम बितीतनि करो।
बीच मसंदन रौरा परो।
नहि निकसे गुर वहिर हमारे।
जथा देति नित दरस अुदारे ॥६॥
१पंजाब कौर।
२(श्री रामराइ जी) सिज़ख दी सहाइता करनी चाहुंदे हन इस करके पास बुलाइआ छेती (पंजाब
कुइर) ळ।
३कोठे।
४कोई देखे ना इस ळ।
५बंद।
६संगली मारके चंगी तर्हां।
७विछौं अुपर।