Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) ४०५
५३. ।तीसरा विवाह॥
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दोहरा: करे शगुन सभि बाह के, जेतिक बिज़प्र बताइ।
श्री गुरु हरि गोविंद जी, दूलहु रहे सुहाइ ॥१॥
चौपई: सजी बराति जितिक सिख संग।
चले कुदावति चपल तुरंग।
पहुंचे तबहि जाइ मंडाली।
देखि खुशी तिन कीनि बिसाली ॥२॥
लोक इकज़त्र करे समुदाइ।
आगे लेनि सु दारा आइ।
जेठा लगो दरब बरखावनि।
रंक धनी बनि भे हरखावनि ॥३॥
तुररी, डफ, गन पटह, निशाना१।
बाजि अुठे जनु घन गरजाना।
गुरु पर दारे वारो दरब।
रीति करी कुल की जे सरब ॥४॥
ले करि संग निवेस करायो।
जो चहीयति ततकाल पठायो।
दै दिन सतिगुरु गए अगारी।
देखि सराहति हैण नर नारी ॥५॥
मंगत जन समूह चलि आवैण।
सभि को सतिगुरु दरब दिवावैण।जसु फैलो बड दान दए ते।
बसे दोइ दिन बीति गए ते ॥६॥
त्रिती दोस रहि घटिका चारि।
बड़वारूढे है सभि तारि।
घने बजावति बाजे चाले।
सुनि सभि कै भा हरख बिसाले ॥७॥
जेठे संग मिलनी करि दारे२।
करो ढुकाअु जाइ तिस दारे१।
१धौणसे।
२कीती दारे ने।