Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४०८

कहो कि रामदास है धंन ॥२०॥
जिन संगति की सेवा करी।
हमरे हित इमि प्रीती धरी।
दुलभ पदारथ होइ न कोइ१।
नौ निधि सिधि पाए है सोइ ॥२१॥
सिख मेरे सेवे अनुराग२।
अपर न इस ते को बडिभाग।
जग महिण बंस बिसाल जु इस को।
पूजमान होवहि चहुण दिश को ॥२२॥
जो नर मम संगति को सेवहि।
हलत पलत महिण शुभ फल लेवहि।
मोर३ महातम जेतिक अहै।
रामदास जानहि फल लहै ॥२३॥
दुइ लोकनि महिण जो पद अूचे।
रामदास तहिण जाइ पहूचे।
जग महिण प्रगट प्रकाश करहिणगे*।
इस पीछे सिख ब्रिंद तरहिणगे'+ ॥२४॥इज़तादिक बहु जस को कहो।
इहु लायक सतिगुर ने लहो।
बहुत संगतां भई इकज़त्र।
गुर भाई प्रेमी भए मिज़त्र ॥२५॥
गुर सम सिख को सिख मिल सेवहिण।
चरन धोइ चरनांम्रित लेवहिण।
सगल नगर किरतन धुनि होइ।
वाहिगुरू सिमरहि सभि कोइ ॥२६॥
तिस दिन ते मेले की रीति।
करी बिदति गुर हुइ अबि नीति४।


१अुस ळ कोई पदारथ दुरलभ नहीण होवेगा। भाव सुलभ प्रापत होवेगा
२प्रेम करके सेवे।
३साडी (सेवा दा)।
*पा:-करहिगो।
+पा:-तरहिगो।
४हुण सदा (इह रीत) होवेगी।

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