Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४१०

बरजहि पातसाहि इस ढार१ ॥३३॥
इम मसलत करि इकठे है कै।
दिज खज़त्री मुखि२ अतिदुख पैकै+।
लवपुरि गए फिरादी३ सारे।
ढिग अकबर के जाइ पुकारे ॥३४॥
तुम मिरयादा राखन हारे।
बिगरति को जग देति सुधारे।
गोइंदवाल अमर गुरु होवा।
भेद बरन चारहुण का खोवा ॥३५॥
राम गाइत्री मंत्र न जपै।
वाहिगुरू की थापन थपै४।
-जुग चारहुण महिण कहीण न होई।
जिमि मिरयाद बिगारी सोई ॥३६॥
श्रति सिंम्रति के राहु न चाले।
मन को मति करि भए निराले।
हमरी करहु अदालत५ एही।
द्रिड़ हुइ धरम सु राज ब्रिधेही६ ॥३७॥
पसर जाइ७ सभि जगत बिसाला।
पुन मुशकल इहु टलहि न टाला८।
सुनि अकबर ने दीन दिलासा।
करहुण नाअुण राखहु भरवासा ॥३८॥
तिन को इस थल लेहिण बुलाई।
सभि बिधि बूझहिण बिच समुदाई९।
अपनी बात तबहि तुम करो।


१इस रीती तोण।
२आगू।
+पा:-दिज खज़त्री मुख मुखि दुखि पैकै।
३पुकार करन वाले होके।
४रचना रचदे हन।
५इनसाफ।६(आप दा) राज वधेगा।
७भाव, इह नवीण मिरयादा जे फैल जाएगी।
८हटाइआण ना हटेगी (इह चाल)।
९सारिआण दे विच पुज़छांगे।

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