Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) ४०८
५६. ।संसराव डेरा, बेरी। बा विच निवास॥
५५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>५७
दोहरा: बिहस कहो सतिगुरु तबहि, फज़गो निकटि बुलाइ।
सिज़खनि ग्रिह ते कार गुरु, ले कीनसि इकथाइ१ ॥१॥
चौपई: सो अबि अरपन कीजहि आनि।
हम चाहति आगै प्रसथान।
हाथ जोरि तिन सकल सुनाई।
कहो जु मैण आगे इकथाई२ ॥२॥
सो गिन गिन पैसे लग३ सारे।
हुंडी को कराइ बहु बारे।
रहो हग़ूर पुचावति सोई।
छानी४ नहीण आप ते कोई ॥३॥
अबि बाकी जेतिक धन कीना।
सो सभि चहौण आप को दीना।इम कहि दयो दरब को आनि।
जो सिज़खनि ते लीनि महान ॥४॥
पिखि सतिगुर ने तिह सोण कहो।
अपर लाअु जो बाकी रहो।
हमरे हित जो किछ किस दीना।
सो अबि देहु जु तुव कर लीना ॥५॥
सुनि फज़गो मन महि बिसमानो।
-इह का सतिगुर बाक बखानोण।
मो ढिग तअु अबि कुछ नहि रहो।
इह किम जाचहि, का अुर लहो? ॥६॥
कूर बाक इह कहैण न कोण हूं।
मुझ ढिग रहो न, सति भी यौण हूं५-।
चित चितवति बितवति६ तिस काल।
१तूं लै के इकज़ठी कीती है।
२इकज़ठी कीती सी।
३पैसे पैसे तक।
४गुज़झी।
५इह बी सज़च है कि मेरे पास (बाकी कुछ) नहीण रहिआ।
६बीतिआ।