Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रतापसूरज ग्रंथ (राशि ११) ५३

७. ।मज़खं शाह ते श्री गुर तेग बहादर जी॥
६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>८
दोहरा: चिंतमान चित महि१ अधिक, मन को कशट बिसाल।
जाम जामनी जागि कै, करि शनान बिधि नाल ॥१॥
चौपई: जपुजी आदिक सतिगुर बानी।
पठि पठि दरस कामना ठानी।
-श्री हरि क्रिशन बाक नहि झूठे।
मिटहि नही, हुइ अपर अपूठे२ ॥२॥
रवि३ सीतल, निसपति४ तपतावै।
पवन टिकहि, निज५* मेरु हिलावै।
अचला चलहि६, सिंधु सुक जाई।
हिम सम पावक७ तेज बनाई ॥३॥
अुडगन८ ग्रैह अुलटे फिरि धावैण।
निज मिरजादा जगत नसावै९।
तअु न सतिगुर हुइ बच कूरा।
कारन करन देनि बर सूरा ॥४॥
कहो बकाले महि गुरु रहै।
बाबा नाम बाक तिन अहै।
यां ते मैण जानवि गति ऐसे।
है अपराध मोहि महि कैसे ॥५॥
जिस ते मुझ नहि दरशन दीनसि।
अपनो आप छपावनि कीनसि।बिन देखे मैण हटि कै जावौण।
मनमुखता पदवी कौ पावौण ॥६॥


१(मज़खं शाह दे) चिज़त विच।
२होर गज़लां भावेण पुज़ठीआण हो जाण।
३सूरज।
४चंद्रमां।
५आपणे आप ळ।
*पा:-पावन निकट निज।
६प्रिथवी चज़ल पवे। (अ) अचला चलहि = पहाड़ तुर पैं।
७बरफ अज़ग वाण।
८तारे।
९सभ दी अपनी मिरयादा जग तोण नस जावे।

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