Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४१६

सीतल रिदै भए सभि केर।
प्रगटी प्रीत रहे मुख हेरि।
अचर चरे, चर अचर१ भए जबि।
का गिनती नर बपुरन की तबि ॥२४॥
अकबर अति प्रसंन हुइ गो।
सभिनि सुनाइ बखानति भयो।
परमेशुर दरवेश जि दोअू।
नहीण भेद एको इह सोअू ॥२५॥
इन सोण समता तुम होइ नांही।
इह साचे तुम मिज़था मांही२।
बेद पुरान कहो इन करो३।
तुम कहिबे मातर मे थिरो४ ॥२६॥
कोण न कहहु अबि सनमुख बानी।
अरथ सहत गाइज़त्री बखानी।
इस महिण करहु प्रशन जे जानहु।
नांहि त अबि बंदन को ठानहु ॥२७॥
पिखि अकबर को तेज बिसाला।
झूठे होइ सकल तिस काला।
बाक न किनहु अुचारनि कीना।
अुठि सभि ने घर मारग५ लीना ॥२८॥
रामदास के संग पिछारी।
बानी अकबर शाहु अुचारी।
जग के लोक दुखहिण तुमि हेर।अनिक भांति की निदा टेरि ॥२९॥
यां ते सभिहिनि को मन राखनि।
मम दिश ते गुर सोण करि भाखनि६।
करनि तीरथन को इशनान।


१ना विचरन वाले चज़लं लग पए, ते चज़लं वाले जड़्ह हो गए।
२झूठ (खिआलां) विच हो
३बेद पुरान दे कहे ते (हकीकत विच) इन्हां ने (अमल) कीता है।
४टिके हो।
५घर दा रसता फड़िआ।
६भाव, सुनेहा देणा।

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