Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ६) ४१४
५२. ।पंडत नितानद दी कथा॥
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दोहरा: इक दिन श्री सतिगुर कहो, कथा सुनहि अबि कोइ।
पठो वटाले नगर को, एक सिज़ख छिन सोइ१ ॥१॥
चौपई: नितानद निज पंडति महां।
आन हकारि, बसहि पुरि तहां।
सुनति सिज़ख तूरन चलि गयो।
पंडत संग कहति इम भयो ॥२॥
तुम ते कथा सुनी गुर चाहैण।
पुसतक लेहु चलहु तिन पाहै।
सुनि मुद धरि दिज हयोहु तारी।
परो पंथ हुइ सिज़ख संगारी ॥३॥
आइ मिलो सतिगुर के संग।
सनमानो बहु लखि दिज अंग।
अगले दिवस कथा करिवाई।
बहु राजनि की गाथ सुनाई ॥४॥
लगहि दिवान आनि करि भारा।
सुनहि गुरू जुति सिज़ख हग़ारा।
चिर लौ बैठहि कथा सुनते।
अनिक प्रसंगन कोबरनते ॥५॥
केतिक दिवस कथा मन लायो।
इक प्रसंग तबि ऐसो आयो।
-जम की पुरी दूर मग जाइ।
एक बरख महि नर पहुचाइ- ॥६॥
इह सुनि सिज़खनि मन महि धरो।
कथा कहनि त जबि हटि परो।
चार सिज़ख तबि आपस महीआ।
तिस प्रसंग पर ऐसे कहीआ ॥७॥
सुंदर नाम सिज़ख तबि लहो।
पंथ बरख को पंडित कहो।
मैण गुर करुना ते चलि जै हौण।
१ओस छिन।