Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४१७

अंगीकार करहिण रुचि ठानि* ॥३०॥
तुम हो बडे रखहु मिरजादा।
अर सभिहिनि को मिटहि बिबादा१।
तीरथ पावन तुम ते होइण।
मूरख नर नहिण जानहि कोइ ॥३१॥
इस प्रकार कहि अकबर शाहू!
रामदास करि बिदा अुमाहू।
इक दिन अपने ग्रहि रहि करि कै।
श्री गुर को मन प्रेम सणभारि कै ॥३२॥
जबि बजार महिण पहुणचे जाइ।
बहुत मोल के बसत्र बिकाइण२।
अति सुंदर को देखन लागे।
-इह गुर अुचित- चितवबे लागे ॥३३॥
-गर३* को बसत्र होइ इस केरा।
इह अूपर को बनहि बडेरा-।धन ढिग नहीण मोल जो देइण।
गुर हित बसत्र बनाइ जि लेइण ॥३४॥
गुर के अुचित जानि नहिण तजै४।


*इह गज़ल गुरबाणी दे अनकूल नहीण। श्री गुरू जी ने जगत दे अुधार वासते तीरथां ते जाणा कीता
सी, श्री गुरू रामदास जी दा आपणा वाक है।
यथा:- तीरथ अुदमु सतिगुरू कीआ सभ लोक अुधरण अरथा॥
महिमां प्रकाश तोण पता लगदा है कि अकबर गुरू जी दी अलूहीत ळ मंन गिआ ते गंगा जाणा
अुस ने मूरख रसम प्रसतीआण ळ सज़चा गिआन दान देण वासते आखिआ,
यथा:-
तब कहिओ अकबर शाहु। सभि लोक निज ग्रह जाअु।
यहि फकर मौला जात। नहीण चले इन सोण बात।
मौला वली नहीण भेद। किआ होइ पड़िऐ बेद।
पुना:-एक बार गंगा तुम आईऐ। मूरख लोगन भरम मिटाइऐ।
तुम बडे वली हो जग सोण निआरे। सुखदाई सभ जग के पिआरे।
यह मूरख महिमा नहीण जाने। मौला आप फकर को माने।
वारतक महिमा प्रकाश विच अकबर वलोण तीरथ जाण दी प्रेरना होई नहीण लिखी।
१मिट जाएगा झगड़ा।
२विकदे हन।
३गले दा।
*गुर।
४छज़डदे भी नहीण।

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