Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रतापसूरज ग्रंथ (राशि ४) ४१५
५४. ।जहांगीर नाल मेल।॥
५३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>५५
दोहरा: निसा जाम जागे गुरू, कीनो सौच शनान।
आसन करि आसीन तबि, निज सरूप धरि धान ॥१॥
चौपई: आसावार रबाबी गावैण।
राग रागनी रुचिर बसावैण।
केतिक सिज़ख सुनहि तहि आइ।
कितिक कंठ ते पाठ अलाइ ॥२॥
सज़तिनाम सिमरति सभि डेरे।
जनु अंम्रित बरखंति बडेरे।
प्रात होति लौ सतिगुरु बानी।
पठति सुनति करि प्रीति महानी ॥३॥
सूर अुदै सभि सूर१ सु आए।
गुरु तंबू दर पर समुदाए।
श्री हरि गोविंद चंद आनिदे*।
बिकसे जुग लोचन अरबिंदे ॥४॥
सूखम बसत्र महिद अभिरामा।
गन पालनि को पहिरो जामा।
रंगदार सुंदर दसतार।
सिर पर शोभति दुती अुदार ॥५॥
अूपर जिगा जवाहर जरे।
कलगी मुकता को गुछ धरे।
नव रतने अंगद२ भुज पाए।जबर जवाहर गरे सुहाए ॥६॥
वहिर रश करिवाइ बिसाला।
तंबू ते निकसे तिस काला।
खरे सकल हुइ बंदन ठानी।
दरशन करति गुरू गुनखानी ॥७॥
कंचन खचति प्रयंक बडेरा।
१सूरज चड़्हे सारे सूरमेण।
*पा:-मनिदे।
२बुहज़टे।