Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४१८

खरो रहो हिरदेमहिण जजै१।
मन करि बसत्र सीवतो खरो।
गर गुर के पहिरावन करो ॥३५॥
पुन अूपर को बसत्र सुधारहि।
पहिरावहि गुर धान सु धारहि।
गोइंदवाल जान करि भाअु।
श्री गुर पहिरहिण अंग हिलाअु२ ॥३६॥
कबि हाथन को अूचे करैण।
कबहि तनी बंधन३ को धरैण।
इत अुत हो करि देहि हिलावहिण।
सभि सिख देखि देखि बिसमावहिण ॥३७॥
बैठे श्री सतिगुर बिन कारन।
इत अुत तनि करि भुजा अुसारन४+।
सभि कै मन की बज़लू जान।
संसै जुति हुइ बूझनि ठानि ॥३८॥
हे प्रभु! सिंघासन पर थिरे।
किमि इत अुत अंगन को करे?
रावरि लीला लखी न जाइ।
कहीअहि प्रभु चाहति समुदाइ ॥३९॥
तबि श्री अमर भनो मन भावति।
रामदास मुहि पट पहिरावति।
लवपुरि के बजार महिण थिरो।
तहिण पिखि पट पहिरावन करो ॥४०॥
सुनि सभिहिनि तब सीस निवायहु।
भाअु सदा सिज़खन को भायहु।
इम तहिण बसत्र निवेदन करे५।


१खड़ोके दिल विचअरपदा रिहा।
२भाव-अुधर गोणदवाल विच गुरू जी श्री गुरू रामदास जी दे प्रेम ळ जाणके अंग ऐअुण हिलाअुण
जिवेण (कज़पड़े) पहिनदे हन।
३तंीआण बंन्हण।
४अुज़चीआण करन।
+पा:-पसारनि।
५अरपण कीते।

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