Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन १) ४१६
नेर भेर घालो जिस बेरे।
फांधि केहरी अूपर आवा।
तरे होइ करि घाव लगावा ॥४३॥
जमधर अुदर सग़ोर धसाई।
अूपर ते दीनसि अुथलाई।
गुर अरु शाह सु चमूं तमाशा।
अवलोकति सभि शेर बिनासा ॥४४॥
बखशिश लगो शाहु बहु दैबे।
कहै सिंघ हौण करौण न लैबे।
जिस गुरु दे बल शेर हतायो।
तिस ते रिधि सिधि हम सभि पायो ॥४५॥
लेनि अपर ते रखी न आसा।
लोक प्रलोक तिनहु भरवासा।
सुनति शाहु अुमराव घनेरे।
अधिक सराहति हटे पिछेरे ॥४६॥
निज निज डेरन को चलि आए।
रौशन सिंघ महां जसुपाए।
लशकर महि सभि करहि सराहनि।
हतो शेर जिस के डर नाहिन ॥४७॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज ग्रिंथे प्रिथम ऐने अखेर खेलं प्रसंग
बरनन नाम पंचासति अंसू ॥५०॥