Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) ४२६
५६. ।बीबी वीरो जी दी सगाई। श्री अटज़ल राइ जनम॥
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दोहरा: इम अुतसव मेला भयो, हरखो सभि परवार।
इक दिन बैठे मात ढिग, सतिगुरु मुकति अुदार ॥१॥
चौपई: सुनहु पुज़त्र! किस नीके थाई।
खोजि करहु निज सुता सगाई।
इह कारज भी करिबे जोग।
पठहु कितिक पुरि१ लागी लोग ॥२॥
जहां बिलोकहि भलोठिकाना।
सो थल आनि सुनावहि काना।
सामिज़ग्री सबंध की जेती।
लेहि सदन ते गमनहि तेती ॥३॥
सुनि गुर कहो बनहि बिन बारि२।
जहि संजोग रचो करतार।
सो सुखेन ही हुइ अबि जाइ।
रिदै मनोरथ आपि अुठाए ॥४॥
कहि सुनि मात संग घर थिरे।
निज प्रयंक पर पौढनि करे।
तबि दमोदरी सुत ले साथि।
आई सेव करनि गुर नाथ ॥५॥
हाथ जोरि करि बाक बखाना।
पिखहु सुता हित नीक ठिकाना।
प्रिया मोहि मनु जहि सुख पावै३।
हम हेरहि आछे हरखावैण४ ॥६॥
सतिगुरु कहो संजोग रचो जहि।
सुख को प्रापति होहि बसहि तहि।
अुचित न इह चित चिंता करनी।
परालबध सभि ते बड बरनी ॥७॥
सुनि दमोदरी अुठि हरखाई।
१कई शहिराण ळ।
२डेरी तोण बिनां, छेती।
३मेरे मन ळ पिआरी (धी) जिज़थे सुख पावे।
४असीण भले (साक) देख के अनद होवीए।