Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 414 of 626 from Volume 1

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४२९

एक दिवस किमि आणगुर चीरा१।
रुधिर नहीण निकसो तिस पीरा२ ॥३०॥
हरित पज़त्र ते रस तस निकसा३।
तिस को देखि मुनी बहु बिगसा।
-ऐसो तप मैण तपो बिसाला।
जिस ते तन महिण रुधिर न चाला४ ॥३१॥
जथा हरित दल को रस होइ५।
तथा सरीर बिखे मम जोइ६-।
इमि जन जानि अधिकअुतसाहा।
-भयो धंन मै अस तप मांहा- ॥३२॥
अुठि करि लगो नाचिबे सोअू।
भुजा अुसारति७ अूचे होअू।
पाइन की गति८ करि कर नाचहि।
अनद बिलद बिखै मन माचहि९ ॥३३॥
तिस ते तप प्रभाव के संग।
सभि जग नाचन लागो अुमंग।
भूलि गए* सुधि सभि बिवहार।
नाचहि सभि जग अंग सुधारि ॥३४॥
अस अनीति पिखि देव दुखारे।
शरन शंभु१० की सकल सिधारे।
-शंकर१२! करहु क्रिपा पिखि जग को।
भूल गए सुध, नाचन लग को ॥३५॥


१किवेण अुणगली चीरी गई।
२बुधी मान (तपज़सी दा)।
३हरे पज़ते तोण (जिवेण) जल (निकलदा है) तिवेण (जल) निकलिआ।
४लहू भी नहीण चलिआ।
५जिवेण हरे पज़ते दा पांी होवे।
६देखीदा है।
७खड़ीआण करके बाहां।
८पैराण दी चाल
(अ) ताल दी चाल जो नचं वाले दे पैराण तोण अदा हुंदी है।
९मसत होइआ।
*पा:-गई।
१०शिव जी। गौरीश = गौरी दा ईशर = शिवजी।

Displaying Page 414 of 626 from Volume 1