Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४३०

तप प्रभाव रिखि केर बिसाला।
अपरन ते न हटहि इस काला।करहु अुपाव आप अबि कोई।
जिस ते जगत सथिरता होई- ॥३६॥
सुनी सुरन की बिनै महानी।
शंकर करि बिचार सुख दानी।
मुनि के मन को लखि अुतसाहा।
तिसे निवारनि को चित चाहा ॥३७॥
अपर बेख को धरि गौरीशा१२।
आवति भा जहिण हुतो मुनीशा१।
निकट होइ करि बूझन कीना।
-को नाचति तैण का चित चीना? ॥३८॥
का आशै अस तव मन अहै?
जिस ते नित ही नाचति रहैण-।
सुनि मंकं ने बाक बखाना।
-मैण इह ठां तप तपो महांना ॥३९॥
इक दिन चीर अंगुरी आवा।
हरित पज़त्र रस सम निकसावा।
नहीण रुधिर भी देहि मझारा।
यां ते भा मुझ हरख अपारा ॥४०॥
नहीण समावति है चित मांही।
नाचति रहौण हेत लख यांही*-।
सुनि शिव ने निज अंगुरी चीरी।
निकसी भसम२ परी तिस तीरी३ ॥४१॥
कहो -देखि तप होवति ऐसो।
करो दिखावनि को अबि जैसो।
अपर अंस कुछ रही न तन मैण।
पीवति भसम रहो निति बन मैण ॥४२॥


१मुनीआण दा ईशर, भाव मंकंमुनी।
*पा:-पाही।
२सुआह।
३(अुस रिखी) कोल जा पई (अ) धार।

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