Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) ४२८
५९. ।जरा संधु प्रसंग॥
५८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>६०
दोहरा: श्री गुरू पटंे पुरि बिखै, रंम सथान निहारि१।
-साहिबग़ादे को जनम, हुइ है इहां- बिचार ॥१॥
सैया: संगति आइसु सीस निवाइ
अुपाइन पाइन पै अरपंते।
भाग बडे हमरे धंन है
निज लोचन ते तुम को दरसंते।
सेवक आपनि जानि दयानिधि!
आइ निहाल किए सुखवंते।
कीजिये आप महां सुख या पुरि,
सेव करैण हम जोण बितवंते२ ॥२॥नांहि त दूर पंजाब को देश थो
कौन सकै तिह ठां नर जाई।
है परिवार जंजार महां
जिस ते निकसो नहि जाइ कदाई३।
सोवति देति अुठाइ किसी कअु
सो हमरी४ गति भी सुखदाई!
रोज सरोज पदं५ दरसैण,
घर कार करैण, भो लाभ महाई६ ॥३॥
यौण सभि संगति भाअु करो
अरदास करी पुन आपस मांही।
सुंदर मंदिर को बनवाइ
सभी रुति मेण सुखदा, दुख नांही।
कीनि अुताइल तार अवास को
और समाज सभै बिधि जाही७।
१सुंदर असथान देखिआ।
२इस पुर विखे आप महां सुख भोगणा करो, जिंना जिंना विज़त होवेगा सेवा कराणगे।
३कदे बी।
४जिवेण किसे सुज़ते होए ळ जगाके (कोई चीग़) देवे इअुण साडी गत होई है हे सुखदाई जी!।
५चरन कवल।
६बहुत ही लाभ होइआ है।
७भाव जिस तर्हां मंदर तिआर कीता तिसी तर्हां होर समाज तिआर कर लिआ।