Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ४२९

५८. ।घोड़े दी सवारी। घोघा। लखनौर॥
५७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १२ अगला अंसू>>५९
दोहरा: ग़ीन ग़री जरि कीनितब*, बर बाजी पर डारि१।
सुंदर साजो साज सोण, चपलति बली अुदार ॥१॥
चौपई: गुरन मनाइ गुरू के नदन२।
मन सिमरे गन बिघन निकंदन३।
चढे तुरंग संग चपलाई४।
प्रेरन कीनो बाग अुठाई ॥२॥
एक बाज ले आइ क्रिपाल।
कहि करि तांहि मिलायो नाल।
मीर शिकार भयो तब आगे।
चले वहिर को आनद पागे ॥३॥
सभि के रिदे प्रफुज़लत होए।
गुरू पितामा के सम जोए।
चढति अनूठी सजो तुरंग५।
मनहु बीर रस भा सरबंग ॥४॥
बदन प्रफुज़लति कमल मनो है।
चपल बिलोचन तेज घनो है।
पूरब अुज़तर की दिशि चाले।
करति अखेर म्रिगन को भाले ॥५॥
मातुल सोण बातन शुभ करते।
बिचरति वहिर अुजार निहरिते।
मंद मंद करि तुंद६ पलावैण।
दास तुरंगम संग सिधावैण ॥६॥
इत अुत बिहरति भए अनद।
एक जाम लौ गुरू मुकंद।


*पा:-तर।
१ग़री नाल जड़ी होई काठी सुहणे घोड़े ते पा के।
२गुरू जी दे बेटे ने गुराण ळ मनाके।
३सारे बिघन नाश करताश्री गुरू जीआण ळ मन विच याद कीता।
४चंचलता नाल।
५सजे होए घोड़े ते आप दी चड़्हत अनूपम है।
६तेज।

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