Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) ४३२
५६. ।दिज़ली तोण कूच॥
५५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>५७
दोहरा: बीति गई सो जामनी,
कीने सौच शनान।
शसत्र गुरु पहिर करि,
बैठे लाइ दिवान ॥१॥
चौपई: हाननि पंचानन को काननि१।
को आनन भनि को सुनि काननि२।
सुधि हित आइ सिज़ख पुरि बासी।
देखति दरशन बैठे पासी ॥२॥
बूझति भे प्रसंग जिम भयो।
केहरि बली आपि हति दयो।
सुख सरीर सारे पर रहो?
नख को घात नहीण कित लहो ॥३॥
ढिग मसंद ने सकल सुनाई।
जंबुक३ सम सुखेन लिय घाई।
इतनेमहि वग़ीर खां आयो।
हाथ जोरि करि सीस निवायो ॥४॥
बैठो निकट सुजसु बहु कहो।
शाहु आपि ढिग आवनि चहो।
-श्री सतिगुरु डेरे बिच रहो।
नहि आगवन इहां को चहो- ॥५॥
इम कहि मो कहु पठो अगारी।
भयो प्रसंन हेरि बल भारी।
बैठि रहो कहि गुरू समीप।
अुत भा तारि तुरक अवनीप४ ॥६॥
चलि मजनू के आइ सथान।
गुरु करिवाइसि फरश महान।
करि डसवावनि बडि मसनद१।
१मारना शेर दा बण विच।
२किसे किहा मूंहोण, किसे सुणिआण कंनीण।
३गिज़दड़।
४भाव जहांगीर।