Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) ४३३
५७. ।कअुलां॥
५६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ५ अगला अंसू>>५८
दोहरा: केतिक दिन पशचाति ते,
कौलां सुनति अनद।
चहति बिलोकनि गुरू सुत,
अुर अभिलाख बिलद ॥१॥
चौपई: चढि डोरे पर तबहि सिधारी।
गुरु घर प्रविशी आनद धारी।
गंगा को पग बंदन कीनी।
देखि तांहि को आशिख दीनी ॥२॥
तीनहु गुरु पतनी तबि हेरी।
सभि को नमो कीनि तिस बेरी।
हित सोण हेरि परसपरि बैसी।
बोलति मधुर गिरा मुख तैसी ॥३॥
मान सहत बच कहति बिठाई।
लखहि सु -प्रीति रिदे करि आई-।
दई बधाई सभिनि सुनाइ।
मानी तिनहु अनद अुपाइ ॥४॥
खेलति साहिबग़ादे चारि।
तन सु कुमार* सु मूरति चारु।
पंचमि कंनां देखनि कीनि।
बसन बिभूखनि धरि दुति भीनि ॥५॥
करि करि प्रेम अंक मैण लेति।हेरि हेरि करि आशिख देति।
श्री गुरुदिज़ता दौरति फिरैण।
बजति बिभूखन रुं रुं करैण ॥६॥
सनै सनै सूरज मल जाणहि।
पाइनि भयो बडो बल नांहि१।
अंीराइ अंं रिंमां२।
*पा:-तन सुभ मार।
१पैराण विच बहुत जोर नहीण भरिआ अजे।
२रिड़्हदे हन वेहड़े विच।