Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४३६
तिनि के होते श्री गुरबानी+।
कोण कीनसि कुछ जाइ न जानी?
इस प्रकार तिनि ते सुनि कान।
श्री गुर कीनसि शबद बखानि ॥२१॥
स्री मुखवाक:
महला ३ गअुड़ी बैरागणि ॥
जैसी धरती अूपरि मेघुला बरसतु है
किआ धरती मधे पांी नाही ॥
जैसे धरती मधे पांी परगासिआ
बिनु पगा वरसत फिराही ॥१॥
बाबा तूं ऐसे भरमु चुकाही ॥
जो किछु करतु है सोई कोई है रे तैसे जाइसमाही ॥१॥ रहाअु ॥
इसतरी पुरख होइ कै किआ ओइ करम कमाही ॥
नाना रूप सदा हहि तेरे तुझ ही माहि समाही ॥२॥
इतने जनम भूलि परे से जा पाइआ ता भूले नाही ॥
जा का कारजु सोई परु जाणै जे गुर कै सबदि समाही ॥३॥
तेरा सबदु तूंहै हहि आपे भरमु कहाही ॥
नानक ततु तत सिअु मिलिआ पुनरपि जनमि न आही ॥४॥१॥१५॥३५॥
चौपई: बेद पुराननि को अुपदेश।
किसहूं को प्रापति किसि देश।
प्रथमे नीकी होवहि++ जाति**।
पुन तिसि ते चहि मति अविदाति१ ॥२२॥
बहुर अभज़ास कमावहिण घनो।
दुरि दुरि बैठति कबहूं भनो२।
पुनहि प्रेम परलोक करैजो।
कोटि मधे नर को नितरै जो३ ॥२३॥
जथा कूप को नीर पछान।
को जब घालहि घाल महांन४।
+पा:-सतिगुर बाणी।
++पा:-होवत।
**शूदर आदि जातीआण ळ वेद पड़्हने दा अधिकार नहीण। सो सरब साधारण, किरती, ग़िमीदार,
मग़दूर तां मुकती तोण एनी गज़ल नाल ही वाणजे गए।
१अुस तोण (अगे) फेर मत अुजल चाहीदीहै।
२कदे छुप छुप के बैठके अुचारे, भाव, एकाणत बैठके विदा घोखे।
३क्रोड़ां विच कोई (इक) नर (ही हुंदा है) जो नितरदा है।
४महांन कमाई करे।