Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ७) ४३५
तिन के तुरग जु दल महि आए
सो तुझ को दै है फिरवाइ१* ॥२८॥
-सहित सैन सुत बंधप जेतिक
ललाबेग हति भा- कहि जाइ।
सुनि गुर हुकम सिदक को धरि अुर
भयो तार निशचा बच पाइ२।
संग तुरक सहि तुरग एक सौ
चलन समै गुर के परि पाइ।
क्रिपा करी तबि श्रीहरिगोविंद
बहु मोला दे करि सिरुपाइ ॥२९॥
करो बिसरजन, गमनो तूरन,
निसबासुर महि चलिबो कीनि।
देनि हेतु सुध शीघ्र करंता,
सिमरति सतिगुर नाम प्रबीन।
लवपुरि पहुंचो महां थकति हुइ,
कितिक बिहाल३ संग महि लीनि।
निश प्रभु+, घाइल बिन अुतसाहा
फटे बसत्र अरु शसत्र बिहीन४ ॥३०॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज ग्रिंथे सपतम रासे स्री सतिगुर बिजै पाइ
प्रसंग बरनन चतुर पंचासमो अंसू ॥५४॥
१मुड़वा देणदे हां।
*घोड़े दुशमन दे वापस देणे फिर अुहो निरलोभता ते कमाल दी बीरता है।
२बचनां विच निशचा करके।
३भाव दुखी (आदमी)।
+पा:-निज प्रभु। निज पर।
४जो प्रभू (= सैनापति) बिहीन, ग़खमी, बिन अुतसाहे, कपड़े फटे होए अते शसत्र हीन सन।