Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४३८
यां ते पंडति रिदै बिचारहु।
घन अरु कूप नीर निरधारहु।
गुरबानी को कारन एहू।
सुनहु सुजन! नहिण करहु सणदेहू ॥३१॥
बरोसाइण लाखहुण गुर बानी।
अूच नीचु कै एक समानी।
प्रेम ठानि जो पठहि बिचारहि।
बहुर कमावहि हुइ निसतारहि ॥३२॥
नगर तीरथनि पर जो बासी।
सुनि करि सगरे भए हुलासी।
बंदन करि सभिहूंनि सराहे।
गए आपने धामनि* मांहे ॥३३॥
इस प्रकार कुछ चरचा भई।
सुनि केतिक की दुरमति गई।
खानपान करि संगति साथ।
दूजी निस बासे जगनाथ ॥३४॥
दिवस तीसरे तीरथ आन।
सभि सिज़खन जुति कीनि शनान।
जथा शकति सभिहिनि दे दान।
बैठे डेरे क्रिपा निधान ॥३५॥
खानपान संगति सभि करि कै।
गुर ढिग आइ हरख कहु धरि कै।
हाथ जोरि सभि बूझन कीने।
श्री गुर! तुम अुर सभि कुछ चीने ॥३६॥
इह कुरछेत्र कोस अठताली।
किमि पुनीत इह भयो बिसाली।
तीरथ जिस महिण बने हग़ारोण।
अनिक+ भए तपसी तप धारो ॥३७॥
थान पुनीत जानि इह महां।
कैरव पांडव लरि मरि जहां।
*पा:-थानन।
+पा:-अधिक।