Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४३९

किसि कारण ते पावन भयो?
बहुति नरनि तन तागनि कियो ॥३८॥
कौतक बरतै रिदै हमारे।
सकल सुनावहु कथा अुचारे।
सभि संगति के सुनि कै बैन।
करुना भरे रसीले नैन ॥३९॥
परअुपकार करनि निति चाहति।
बहु लोकन की दुरमति दाहति।
जिस कारन को धरि अवितारा।सो नित करति भगति बिसथारा ॥४०॥
कथा पुरातन बहु चिर केरी।
गिनती संमत परहि न हेरी।
जगत आदि को इह बिरतांत१।
श्री गुर चहो करनि बज़खात ॥४१॥
भो संगति! सुनीअहि दे कान।
अुपजो नहिण जबि जगत महांन।
श्री नाराइं बैठे इहां।
भयो इतक महिण२ आसन महां ॥४२॥
अशट कोस लगि नीचे थान।
आगे जानू३ बधे महांन।
अुज़तर दिशि भी प्रिशटि बडेरी।
दज़खं को मुख किय तिस बेरी ॥४३॥
अशट कोस चअुगिरदे मांहि।
मज़ध थान भगवान सु आहि४।
सो थल इहै थनेसर जानहु।
महां महातम रिदै प्रमानहु ॥४४॥
सुनि संगति गुरि बूझन कीने।
इहां प्रमेशुर किम आसीने?


१जगत दे मुज़ढ दा इह ब्रितांत।
२इतनी थां विच।
३गोडे।
४विशळ दा हैसी।

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