Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ३) ४३७४९. ।माला सिंघ ते लाहौरा सिंघ॥
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दोहरा: *इस प्रकार श्री सतिगुरू,
सिज़खनि करहि संभार।
भरि भरि पूर लघावहीण,
अति भवजल ते पार ॥१॥
निशानी छंद: बीतो मास विसाख शुभ, चढि कानन१ जाते।
तरवर पुशपति निरखते२, शोभा बहु भांते।
बरन बरन३ के पुशप गन, चित मोद अुपावैण।
बिचरहि करति अखेर को, जित कित फिरि आवैण ॥२॥
जहि कुनीत देखहि सुनहि, चढि दुशट बिडारैण४।
देति अुपाइन को मिलै, तिस रज़छा धारैण।
अकरहि आन न मानहीण, हुइ आप भरोसा५।
लूटहि तिस को खालसा, जानहि जिस दोशा६ ॥३॥
इसी रीति ग्रीखम ब्रिती, बरखा रितु आई।
नई घटा चहुदिशि अुठी, घुमडै समुदाई।
धारा छोरति धरनि पर, हरिआवल होई।
दादर मोरनि शोर करि, चित हरखे सोई ॥४॥
करहि अनद अनदपुरि, सुखकंद मुकंदा७।
भाद्र मास जल ब्रिंद भा, बिच नदी बहंदा।
मंदर हुतो अुतंग बहु, तिस पर निस मांही।हित सुपतनि सतिगुर चढे, गरमी जहि नांही ॥५॥
आइ बायु सभि दरनि ते, सीतल समुदाई।
तहां प्रयंक डसाइ बरु, सुमनति सुखदाई८।
चंपक चंबेली रुचिर, करि दीरघ माला।
*इह सौ साखी दी सज़तवीण साखी है।
१बनां ळ।
२फुज़लां नाल लदे होए ब्रिज़छ वेखदे।
३रंगां रंगां दे।
४मारदे हन।
५(जो) आकड़दे हन ते आन नहीण मंनदे ते आपणे (धन बल दा) भरोसा रज़खदे हन।
६जिस विच दोश देखदा है खालसा (ते जिज़थे कुनीत हुंदी है जो पहिली तुक विच कहिआ है)।
७भाव गुरू जी।
८सुहणे सुखदाई फुज़लां नाल विछाइआ होइआ।