Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) ४३८
५७. ।सज़चा पातशाह। घाही॥
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दोहरा: शाहु तरोवर के तरे अलप नरनि तिह सग।
बैठो हित बिसराम के खरो समीप तुरंग ॥१॥
चौपई: तैसे कितिक दूर गुर थिरे।
घाम१ तपत निरवारनि करे।
तहि इकि घाही चलि करि आयहु।
घास खुरचबे हित ललचायहु ॥२॥
आवति सुनो -गुरू इत आए।
हित शिकार के अज़ग्र सिधाए-।
हरखो -मैण इत दरशन पाअूण।
मनो कामना सभि पुरवाअूण२ ॥३॥
संग नरनि की भीर न कोई।
मसतक टेकोण दरशन होई।
हाथ जोरि मैण अरग़ गुजारौण।
मन तन के दुख सभि निरवारौण- ॥४॥
इम चितवति चलि करि तहि आयहु।
जहांगीर जहि थिर सुख पायहु।
बूझनि लगो साच पतिशाहु।
कित अुतरो कहीअहि मुझ पाहु? ॥५॥शाहु नरनि कुछ समझो नांही।
जानो हग़रति हेरनि चाही।
दियो बताइ अमक तरु तरे।
छाया सघन बिखै तहि थिरे ॥६॥
इम ही बूझति पहुचो जाइ।
जहांगीर बैठो जिस थाइ।
बरजन वारो३ नर जहि खरो।
तिस ढिग जाइ बूझबो करो ॥७॥
बैठो जहि साचो पतिशाहू।
१धुज़प दी।
२पूरी करवावाणगा।
३रोकं वाला।