Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४४२
तिसी कमल के थल को पाइ।
लगो करनि तप को तपताइ ॥६॥
पुनह अकाल पुरख इछ ठानि।
हाथ आणगुरी दे करि कान।
कुछक हलाइ सुकंडू१ करि कै।
कितिक तहां ते मैल निकरि कै ॥७॥
निज अनामिका ते सु बगाई२।
जोजन कितिक परी किति जाई।तिस ते दैत दोइ तन धारे।
बली बिसाल बडी भुज वारे ॥८॥
ब्रिधे कलेवर३ तिन ततकाला।
अज़प्रमान४ बल महत कराला।
चहुणदिशि बिचरहिण जल के मांही।
भरे गरब ते रण अुतसाही ॥९॥
महां बदन अरु दाड़्ह५ जिनहुण के।
रकत बिलोचन भीम तिनहुण के।
दंड प्रचंड६ बजावहिण बल ते।
भैरव७ गरज अुताइल चलते ॥१०॥
बिचरति आइ पहूंचे तहिणवा।
हुतो कमल पर ब्रहमा जहिणवा।
देखि दुहन को डरो बिसाले।
काले परबत मनहुण कराले८ ॥११॥
तन रुहि खरे तरोवरु जाल९।
जानू जुग जुग शिंग बिसाल१०।
१खुरक के।
२चीची नाल अुणगली नाल वगाह मारी।
३सरीर वधे।
४बिअंत।
५दाड़्हां।
६भुजचंडे तीखं।
७भिआनक।
८मानोण काले पहाड़ भिआनक।
९तन दे रोम मानो खड़े हन दरखत समूह।
१०दो गोडे मानोण पहाड़ दे टिले ही हन।