Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) ४४०

५८. ।कअुलसर॥
५७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ५ अगला अंसू>>५९
दोहरा: बरनी जाइ न कछु दशा, धरनी लोटति दीह।
हरनी द्रिग तरनी१ परी, गुरू लखी सप्रीह२ ॥१॥
चौपई: कोण धर परी नीर भरि बरनी३?
भई बिबरनी४ चंपक बरनी५*।
किसि ने तोरि अनादर कीनो?
कहु कारन, कोण बेख मलीनो+ ॥२॥
बाणछति कहति प्रथम हमपासि।
सो करि देते कारज रासि।
कोण इतनो तन पाइ बिखादू?
बिना आज ते निति अहिलादू ॥३॥
सुनि म्रिदु वाक अुठी कर जोरि।
करि निज मुख सतिगुरु की ओरि।
-तुम समरथ सभि रीति गुसाईण-।
कहि सभि जग अरु मैण लखि पाई ॥४॥
लाखहु देशनि ते सिख आवैण।
मन बाणछति तुम ते बर पावैण।
पूरब जनम भाग मम नीका।
होनि हुतो निसतारो६ जी का ॥५॥
जिसि ते अंचर गहो तुमारा।
महां नरक ते मोहि अुबारा।
जनम तुरक मम अविगति७ जाती।
सो तजि करि मैण तुज संगाती ॥६॥
जबि लौ जगत रहै इह बनो।


१हरनी वत नेत्राण वाली इसत्री।
२इज़छा सहत। ।संस: प्रीह = इज़छा॥ (अ) सहत पीड़ा दे ।संस: स+प्रेख = पीड़ा॥
३झिंमणीआण विच पांी भरके।
४पिज़ले रंग वाली हो गई।
५चंबे दे रंग वाली।
*पा:-तरनी।
+पा:-बेखस लीनो = ऐसा वेस लिआ।
६मुकती।
७खोटी।

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