Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ५६

६. ।राजे दा दल रुड़्हनोण बचाइआ॥
५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १२ अगला अंसू>>७
दोहरा: भई प्रभाति नरिंद युति, सतिगुर हुइ असुवार।
दुंदभि बाजै बहुत ही, लशकर कई हग़ार ॥१॥
चौपई: मान सिंघ न्रिप जहि हति होयो।
रंगामाटी नगर सु जोयो।
ब्रहम पुज़त्र नद निकटि बहंता।
चौरा चारहु कोस चलता१ ॥२॥
तिस कै तट अुचे असथान।
डेरा कीनसि क्रिपा निधान।
बड अुतंग दमदमा बनाइआ।
करनि लगे मानव समुदाइआ* ॥३॥
अूपर ते करि कै इक सार।
सुंदर करो महां बिसतार।
रुचिर बंगला तहि बनवाइ।
सतिगुर बीच बिराजे जाइ ॥४॥
द्रिशटि दूर लगि दौरहि जहां२।
जल की सैल बैठिबे तहां३।
दूर दूर लगि तीर तिसी के।
लशकर डेरा कीनसि नीके ॥५॥
लगी तुरंगनि लैनबडेरी।
ब्रिंद मतंग खरे पग बेरी४।
जहां कहां तंबू लगवाए।
खरे सेत५ दीखहि समुदाए ॥६॥
तोपनि की पंगति करि खरी।
परले पार कूल मुख करी६।


१चार कोह तक चौड़ा।
*पा:-बहु नर लाइ तुरत करवाइआ।
२दूर जिज़थोण तक जा सके।
३अुथे बैठिआण जल दी सैल होवे।
४पैराण विच संगल।
५चिज़टे।
६दूजे पासे दे कंढे वल मूंह करके खड़ीआण कीतीआण।

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