Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४४६
गही बाणह दोनो, महां भीम रूपै।
करैण ओज दाबैण, जथा नम्रि होवैण१।
धरैण पाइ पेलैण२, हठीले खरोवैण ॥२७॥
दोहरा: मधुकैटभ जुज़टे सु भट३,
गही महां बलि बाणह।
दोनहुण दिशि दोनहु खरे,
द्रिढ प्राक्रम४ के मांहि ॥२८॥
पाधड़ी छंद: तब प्रभू आपनो बल संभारि।
बाहुनि अुठाइ अूरध अुदार५।
लटके अुतंग दोनहु महांन।
ंहकरि झटक गेर दिय दूर थान ॥२९॥
तब परे जाइ जोजन सु बीस।
गिर करि अुठे सु निज दांत पीस६।
गरजंति भूर तरजंति आइ७।
मुखि मार मार बकते रिसाइ ॥३०॥
अुछलत नीर तिन बेग८ संग।
सम सैल मेरु मंदर अुतंग९।
इति प्रभू बेग कीनसि अुदार१०।
पंकतहुवंति जल के प्रहार११ ॥३१॥
पुन भिड़े आइ मुशटनि चपेट।
१जिस तर्हां कि नीवेण होण (विशळ) जी।
२रखके पैर धज़कदे हन।
३सूरमे टज़करे।
४हज़ला।५बाहां बड़ीआण अुपर ळ अुठाईआण।
६अपने दंद पीसके।
७धमकाणवदे आअुणदे हन।
८तेजी, काहली।
९सुमेर परबत ते अुचे मंद्राचल परबत वाणग।
१०भाव बड़ा ग़ोर कीता।
११जल दे मारने करके कज़ठे हुंदे जाणदे हन। (पणकि = जुध विज़च दस आदमीआण दा जज़था। पंकत
होणा = इक दूजे नाल कज़ठे हो जाणा दुशमन दा जोर पैं ते)।
(अ) पांी दी बुछाड़ नाल पंक+त = चिकड़ विज़च फसदे जाणदे हन।
(ॲ) पा:-पहार। फिर अरथ-छज़लां (इंनीआण अुज़चीआण) अुठ रहीआण हन (कि मानो) जल दे पहाड़
हन।